शिक्षक की सच्ची सफलता उसके शिष्य की सफलता में निहित होती है
सुल्तानपुर। सर ! आपने बहुतों को शिक्षित किया है, बहुत सारे आपके शिष्य रहे है क्या आप बता सकते है कि कोई कहीं अच्छे प्रतिष्ठित पद पर है क्या? मेरे इस प्रश्न पर मास्साब अचंभित रह गए थे। आज अचानक मुलाक़ात हो गयी थी अपने गुरु आदरणीय सुभाष चंद्र शर्मा से जिन्हें हम लोग प्यार से टीचर जी कहते थे। चरण स्पर्श के पश्चात कुछ औपचारिक बातें हुई फिर मैं पूछ बैठा उपरोक्त प्रश्न। सुनकर बहुत ही धैर्य के साथ उत्तर दिया -पंडित प्रतिष्ठित पद का तो पता नही पर बेरोज़गार कोई नही है। सब अच्छा कर रहे है एवं बढ़िया जीवन यापन कर रहे है। देश व प्रदेश में रहकर अपना जीवन स्तर निरंतर सुधार रहे है। अब तुम्हें ही देख लो अपना व्यवसाय कर रहे हो, पत्रकार भी हो और लेखन कला में भी निपुण हो। परिवार के साथ साथ समाजिक कार्यों में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हो। कहानी हास्य व्यंग्य पर भी हाथ आज़मा लेते हो। लाखों तो नही पर मेरा मत है कि हज़ारों की संख्या में पाठक भी है। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छपते भी हो। ये क्या कम है किसी गुरु के लिए? गुरु की सफलता उसके शिष्य ही होते है। हमार पढ़ावा एक्कव बेरोजगार होय त बतावा? अब मैं निरुत्तर हो गया था क्यूँकि सभी लगभग कुछ न कुछ तो कर ही रहे थे। सुखी हैं अपने परिवार के साथ। लेकिन सर मटरुआ? मैंने अपने परम मित्र की बात छेड़ी जिसे सुनकर टीचर जी ने एक लंबी गहरी साँस ली और कहा -न त ऊ कभौ हमका आपन गुरु मानिस और न हम ओका आपन चेला माने है। एक नंबरी दुष्ट था वो। मेरे नाम से ट्यूशन फ़ीस घर से लाया ज़रूर पर कभी दिया नही। मैंने भी सोच लिया था जैसे १०० भेड़ वैसे एक भुखाली गड़ारिया। संक्षिप्त वार्ता के पश्चात् हमने टीचर जी से विदा लिया।वास्तव में वो सही कह रहे थे। मटरुआ था ही ऐसा ट्यूशन में बैठकर उसे ख़ुरपंच ही सूझता था। किसी न किसी की कूट करता रहता था। पीछे से किसी को चिकोटी काट लेता था। कई बार तो मैंने भी चिकोटी काटकर उसका नाम लगा देता था फिर वो लाख विद्या क़सम खाए, माई क माछ छुए कोई मानता नही था।
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