चार दशक बाद भी नहीं बदली बरगी विस्थापितों की तकदीर
केएमबी नीरज डेहरियासिवनी। हम बात कर रहे हैं बरगी बांध विस्थापित गांव बीजासेन, सहित आधा दर्जन गांवों की बरगी बांध विस्थापितों के दर्द को वयां करती हमारी ये रिपोर्ट। जब नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत नर्मदा और उस की सहायक नदियों पर 30 बड़े, 135 मध्यम और 3,000 छोटे बांधों के निर्माण की योजना तैयार हुई। यह समस्त दृश्य मध्य प्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा नदी पर बने पहले बड़े बाँध रानी अवंतीबाई परियोजना यानी बरगी बाँध के प्रभावित गाँवों के हैं। जिसके बाशिन्दे तब डूब के कारण जीते जी मारे गए और अब तिल-तिल कर मर रहे है। इन दृश्यों का हमसे सामना कराने वाली इस परियोजना पर भी तो नजर डालें कि आखिर इसने दिया क्या और लिया क्या? बरगी बाँध से मंडला, सिवनी एवं जबलपुर के 162 गाँव प्रभावित हुए हैं, जिसमें 82 गाँव पूर्णतः डूब गए हैं। लगभग 12 हजार परिवार विस्थापित हुए हैं। जिसमें 70 प्रतिशत आदिवासी (गोंड) हैं। इस परियोजना में 14872 हेक्टेयर खाते की तथा 11925 हेक्टेयर जंगल एवं अन्य भूमि डूब में आई है। उक्त खाते की भूमि का रुपए 16.61 लाख मुआवजा भुगतान किया गया तथा पुनर्वास नीति के अभाव में लोगों का व्यवस्थापन नहीं किया गया है। आज बरगी बांध से विस्थापित और प्राभावित बीजासेन और गाड़ाघाट करहैया, अनकवाडा सहित दर्जनों गांव बरगी जलाशय के इर्द-गिर्द पहाड़ियों और वन भूमि में बसने को मजबूर हैं और आज भी विकास की बाट जोड़ रहे हैं। अगर बात करें बीजासेन गांव की तो इस गांव में शिक्षा और रोजगार का कोई विकल्प नहीं है। विकास के नाम पर हजारों परिवारों को उजाड़ दिया, लेकिन सरकारों ने दोबारा विस्थापितों की ओर मुडकर नहीं देखा। आज भी चार दशक बाद कीड़े मकोड़े का जीवन जीने को मजबूर हैं। 1974 से परियोजना का कार्य प्रारम्भ होकर 1990 में जलाशय का गेट बन्द किया गया। सरकार इस बाँध से पर्यटन को बढ़ावा देने में लगी है, तभी तो परियोजना की मूल शर्ताें को छोड़कर सरकार ने पर्यटन विकास के लिये रिसोर्ट बना दिया गया है। पर्यटकों को आवाजाही में परेशानी न हो इसलिये पुल भी बना दिया गया है। मोटर बोट और क्रूज भी चलने लगे हैं लेकिन विस्थापितों की सुध नहीं ली। बीजासेन के श्याम लाल बर्मन कहते हैं कि सरकार और आम लोग इसे पर्यटन स्थल मानते हैं लेकिन यह हमारे गाँव, हमारे घरों और हमारी जमीनों का समाधि स्थल है। जब-जब यह बोट हमारे घरों से बरगी से मंडला को गुजरती है, तो हमारी छाती जलती है। मगर क्या करें साहब! सरकार है। सरकार की ही चलती है। हम तो बस वोट देते हैं और सरकार बनाते हैं और फिर सरकार अपनी चलाती है। हम तो पुतरिया (कठपुतली) हैं, जैसा नचाएगी सरकार, वैसा नाचेंगे। तो यह बर्बादी का पर्यटन स्थल है, सरकार ने जीते जी हमारी कब्र खोद दी! विश्व की सबसे प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है नर्मदा की घाटी। नर्मदा यानी अमरकंटक से निकलने वाली और तीन राज्यों में से गुजरती हुई गुजरात में अरब सागर में समा जाने वाली नदी नहीं है बल्कि यह तो मध्य प्रदेश की जीवनदायिनी है। लेकिन इस नदी को बाँधने की घृणित कोशिशें जारी हैं। आज की पीढ़ी का दुर्भाग्य है। यहाँ सवाल यह है कि क्या हमारे धुर विकास समर्थक नर्मदा को एक नाले में तब्दील होते देखना चाहते हैं? लेकिन इस विकास की कीमत कौन चुकाएगा ओर कौन चुका रहा है? इसका ताजा उदाहरण है बरगी बांध के विस्थापित जहां 162 गांव बरगी विस्थापन का दंश झेल रहे हैं और आज दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर है। साल दर साल बरगी विस्थापितों का बढ़ता पलायन प्रशासन और नेताओं के लिए कभी सर सर्द का विषय नहीं रहा, सिर्फ चुनाव के समय नेताओं के माथे पर चिंता की लकीरें दिखाई देती है वह भी वोट के लिए विकास के नाम पर प्रदेश में हजारों करोड़ खर्च किए जा चुके हैं लेकिन बरगी बांध विस्थापितों की स्थिति दयनीय ओर चिंताजनक बनीं हुईं हैं।
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