राजा बने रंक, बरगी बांध विस्थापितों की दर्द भरी दास्तां बयां करती रिपोर्ट
सिवनी। भारत के मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी पर बनने वाले 30 प्रमुख बांधों की श्रृंखला में से पहले पूर्ण किए गए बांधों में से एक है। बरगी बांध, बरगी बांध विस्थापितों को दर्द को बयां करती हमारी रिपोर्ट। हम बात कर रहे हैं बरगी बांध विस्थापित गांव बीजासेन तहसील घंसौर जिला सिवनी की, 40 साल बाद भी बरगी बांध विस्थापन का दंश झेल रहे हैं, कभी प्रशासन ने इन लोगों की सुध लेना उचित नहीं समझा, बीजासेन, करहैया, अनकवाडा, गाड़ाघाट, ऐसे दर्जनों गांव है जो आज अपनी किस्मत पर रो रहे हैं, इस ज़मीन को इंसान ने ही अभिशापित किया है, मानव निर्मित हमारी-आपकी सरकारों द्वारा रची गई। विकास के खूबसूरत खोल में लिपटी हुई त्रासदी। जब आप मध्य प्रदेश के सिवनी जिले मुख्यालय से 150 और जबलपुर से 80 किलोमीटर दूर बरगी बांध की छाया में बसे गांवों की ओर बढ़ते हैं तो इस त्रासदी का निशान जमीन पर जहां-तहां उकेरे मिलते है। रास्ता बहुत टूटा-फूटा है लेकिन उससे भी अधिक तार-तार है यहां रह रहे आदिवासी और मछुआरे समुदाय का सरकार पर भरोसा। यहां आपकी मुलाकात समाज के उस हिस्से से होती है जो पिछले कई दशकों से लगातार विस्थापन का दर्द झेल रहा है। “40 साल पहले लोगों को बांध के कारण अपने घरों से हटाकर बसाया लेकिन अधिकारियों को अंदाज़ा ही नहीं था कि जिस जगह विस्थापितों को बसाया जा रहा है वह इलाका भी बांध के पानी में डूब जायेगा। लिहाजा एक ही परियोजना के लिये लोगों को दो बार विस्थापित होना पड़ा। “हमारे बुज़ुर्ग हमें अंग्रेज़ों के ज़माने की बातें बताया करते थे। मुझे लगता है कि अंग्रेज़ों का वक्त इससे अच्छा रहा होगा। कम से कम उन्हें (बुज़ुर्गों को) हमारी तरह बार-बार अपना घर तो नहीं छोड़ना पड़ा, ”पूरन बर्मन हैं जो मछुआरा समाज के हैं, इन लोगों के सुर में अगर सरकार के प्रति गुस्सा और कड़वाहट है तो उसके पीछे “विकास योजनाओं” की आड़ में अतीत में किया गया “धोखा” शामिल है।
बरगी बांध विस्थापित और प्रभावित संघ के श्री राजकुमार सिन्हा कहते हैं कि “हमने बरगी बांध विस्थापितों के लिये लम्बा संघर्ष किया है। सिवनी ज़िले के ही 48 गांव इस बांध से प्रभावित हुये। इन लोगों को मुआवज़ा तो मिला लेकिन ज़मीन नहीं दी गई। सच यह है कि सरकार ने उस वक्त हर परिवार को एक नौकरी और अधिग्रहित ज़मीन के बदले 5 एकड़ ज़मीन देने की बात कही थी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसलिये यहां लोग ठगे महसूस कर रहे हैं। साल 1994-95 मे विस्थापितों के पुनर्वास कार्यक्रम की समीक्षा के लिए गठित राज्य, संभाग एवं जिला स्तरीय समितियों मे अनेको योजनाएं बनाईं गई लेकिन नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की विस्थापितों के पुनर्वास के प्रति घोर उपेक्षा और अनदेखी पूर्ण रवैया के कारण पुनर्वास कार्यक्रम फाइलों मे अटक कर रह गया है।सामाजिक कार्यकर्ता राजकुमार सिन्हा का कहना है कि नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की जिम्मेदारी केवल बांध बनाकर विस्थापितों को सुविधा विहीन कर भूखों मरने के लिए छोड़ देना ही नही है बल्कि आजीविका के संसाधनों के साथ आर्थिक पुनर्वास करने की भी सम्पूर्ण जिम्मेदारी है। भुवन बर्मन ने कहा आसपास 20 किलोमीटर के दायरे में कोई हाई स्कूल है ही नहीं 22 आना और 22 जाना कुल मिलाकर 44 किलोमीटर का सफर करते हैं तब जाकर हाई स्कूल की शिक्षा नसीब होती है। गांव में आठवीं तक स्कूल है उसके बाद से बच्चे पढ़ाई बंद कर देते हैं क्योंकि स्कूल तक पहुंचने का किराया आना-जाना 1 दिन का ₹60 है तो महीने भर का होता 1800 होता है। अगर आधा किराया गाड़ी वाला लेता है तो ₹900 होता है। गरीब बिजली बिल नहीं भर पा रहा है, गरीब गैस नहीं भरा पा रहा तो ₹900 किराया कहां से वहन करेगा? दो-तीन बच्चे ही मेरे गांव से हाई स्कूल की शिक्षा ले रहे हैं जो इस 21वी सदी के युग में बेहद चिंताजनक है। सूरज बर्मन कहते हैं अगर रोजगार की बात करें रोजगार का कोई विकल्प नहीं है, लोग नागपुर जबलपुर पलायन को मजबूर है, लगातार बरगी जलाशय से मत्स्यखेट का उत्पादन गिर रहा है मछुआरे भी बड़ी संख्या में गन्ना काटने और मजदूरी करने दूसरे बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे है, अगर मनरेगा की बात करें मनरेगा में भी रोजगार नहीं मिलता। एक जॉब कार्ड में 100 दिन का रोजगार मिलता है जिसमें अगर 4 सदस्य जुड़े हैं तो एक व्यक्ति को 25 दिन यानी 4 सप्ताह ही काम मिलेगा, और काम मिल भी गया तो दो दो तीन तीन माह पेमेंट नहीं होती है।
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